Saturday, 31 December 2011
Thursday, 8 December 2011
Sunday, 4 December 2011
Thursday, 1 December 2011
आत्म-निरिक्षण - स्वरचित श्रीमती मीना ठाकुर (प्राथमिक शिक्षिका ) के. वी. सी. एम. ई
आत्म-निरिक्षण
इस सृष्टिकी कोमल रचना
ये मासूम से प्यारे बच्चे
स्नेह के जल से इन्हें सींचना
है जीवन का ध्येय हमारा.
ये मात-पिता से बढ़्कर भी
हमको अपना मानते हैं
सही गलत कि क्या पहचान है ?
हमसे ही, ये सब जानते हैं.
हम ही तो कच्ची मिट्टी पर
नई आकृति गढ़ते हैं.
हम ही तो इनके सपनों में
रंग अनेको भरते हैं
हमको ही आदर्श मानकर
ये जीवन में आए बढ़ते हैं.
बचपन भी हमारे हाथों में था
और जवानी थी मुठ्ठी में
क्या हुआ जो सब कुछ फिसल गया
कल का निर्छल-निर्मल बचपन
चोला आतंक का, पहन लिया.
भूल हो गयी है ये किससे ?
पालक से या शिक्षक से
क्यों दोषी जन्मजयी को जानूँ
क्यों न अपनी ही गलती मानूँ
सब कुछ हम ही थे तो
फिर राह वो कैसे भटक गया?
आतंकवाद का बीज भला
कौन उसके मन में रोप गया ?
शांति और सद्भावना का
हमने पाठ पढ़ाया था
फिर क्यों कलम छोड़कर
वो हथियार हाथ में ले आया.
एक अच्छा मानव बनने की
ऊँचा ओहदा पाने की
मेहनत से आगे बढ़ने की
इक चाह हमी ने पैदा कि थी.
वो आदर्श वो ऊँचे सपने
किस अन्धकार की भेंट चढ़ गए?
अभी तो कुछ ही साल हुए थे
कदम जवानी में रखा था
हाय! धर्म के ठेकेदारों ने
किस मोड़ पर उसको ला छोड़ा.
था परिवार भी नहीं सचेत,
शायद समाज भी था अचेत,
वो भी थोड़ा सहभागी था.
फिर भी मेरे मन का कोना
अपराध भाव से ग्रस्त था.
क्या भूल हो गयी मुझसे?
क्या चूक हो गयी मुझसे?
जो मेरी बात नगण्य हो गयी
दिखावे कि इस दुनिया में
मेरे आदर्शों कि नींव हिल गयी.
कहने का अंदाज़ मेरा
शायद उतना दमदार नहीं था
मेरी शिक्षा में कट्टरपन
शायद हद की हद तक न था
वरना वो मासूम सा बचपन
क्या ऐसा बन सकता था?
हाथों में ए.के. 47 लिए
वो अपनी धुन में जीता है
दहशत फैलाने कि खातिर वो
बम के धमाके करता है.
मानव होकर मानव को ही
कदमों तले रौंदता है.
काश! वक्त के रहते
हम भी चेत गए होते,
जवाँ उमंगो की धरा को
नई दिशा एक दे पाते
साथ ही ऊँचे संस्कार से
उसके मन को संयम में रखते.
तब भरपूर फसल आतंकवाद की
मानवता को नहीं निगलती
ना यूँ अपना परचम लहराती.
ना यूँ.............................
श्रीमती मीना ठाकुर (प्राथमिक शिक्षिका )
के. वी. सी. एम. ई. (स्वरचित)
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